भारत में अल्पसंख्यकवाद की परिभाषा ही गलत है। अल्पसंख्यकवाद की पहचान केवल मुसलमानों को ही माना जाता है। जबकि सच में अल्पसंख्यक सिख, जैन, बौद्ध, यहूदी आदि हैं। जिसकी संख्या नगन्य है। मुस्लिमों की आबादी तो बीस करोड़ से भी ज्यादा है जो कि देश की दूसरे नंबर पर आती है। अल्पसंख्यक नाम अंग्रेजों की देन है। जो फूट डालो और राज करो की उनकी नीति को सफल बनाने के लिए किया गया है। जिसके परिणाम स्वरूप पाकिस्तान और भारत का बंटवारा धर्म के आधार पर हो गया है। आज राजनीतिक दल अंग्रेजों की भूमिका में अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, का नारा बुलंद करके दूसरा विभाजन करने पर तुले हुए हैं। देश विभाजन के समय जिस बुद्धिजीवी मुसलमानों ने अल्पसंख्यक नाम का गलत मतलब निकाला, वह धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान को त्याग कर भारत में रहना स्वीकार कर चुके हैं। हमारे संविधान सभा में अल्पसंख्यक मामले में एक समिति का गठन किया गया है। उनके एक सदस्य तजम्मुल हुसैन मलिक जी ने कहा कि हम अल्पसंख्यक नहीं हैं। दूसरे सदस्य पी सी देशमुख जी ने कहा कि अल्पसंख्यक शब्द सबसे क्रूर शब्द है। तीसरे सदस्य एच सी मुखर्जी ने कहा कि यदि एक राष्ट्र चाहते हो तो अल्पसंख्यक शब्द को मिटा देना है।
अल्पसंख्यक रोग अब राज्य स्तर पर पहुंच गया है। उसे 370 कानून की तरह ही जड़मूल से समाप्त करने का समय आ गया है। वैसे भी कोई इंसान खुद को असहज स्वीकार करना उचित नहीं समझता है। आज यदि किसी को जाति सूचक नाम से संबोधित करते हैं तो वह बड़ा विरोध प्रकट करता है। यदि सरकारी सहायता के लिए किसी श्रेणी में विभाजन करना हो तो वह अमीरी-गरीबी की श्रेणी में बांटकर सहायता मिलनी चाहिए न कि जाति धर्म में बांट कर। जिसका ताजा उदाहरण “सवर्ण आरक्षण का आर्थिक आधार” को ही सर्वोच्च न्यायालय ने सही माना है। आज देश के अल्पसंख्यक, बहुसंख्यकवाद से निकलकर सभी जाति धर्म के गरीब व्यक्ति को आधार मानकर आगे बढ़ने में ही देश का हित है।