खुशबू अपनों की – बस जरूरत महसूस करने की | लेख | जन-मंच | By- ज्योति व्यास (Jyoti Vyas)

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पूरे वर्ष की बात करें तो अक्टूबर- नवंबर महीनों की बात ही अलग है।त्योहारों के चलते कुछ ज्यादा छुट्टियां मिल जाती है औऱ यही समय रहता है जब कहीं दूर बैठे अपने लोगों से मिलने का शानदार अवसर पकड़ में आ जाता है। और मुझे भी मिल ही गया एक मौका अपनों से मिलने का।

बहुत लंबे अरसे बाद भांजियों के घर पहुँची।
तीनों बेसब्री से राह देख रहीं थीं।पहुँचते ही गरमा गरम खाना परोस दिया।खूब मान मनोव्वल कर के खिला रहीं थी। मैं खाते हुए अतीत में विचरण कर रही थी जब मेरी बहन इसी तरह स्नेह और ममत्व से मना – मना कर खिलाती थी। हाँ ! वही बहन जो चार साल पहले हम सबको छोड़ कर भगवान के पास चली गई। बेटा है नहीं सो जीजाजी की जिम्मेदारी बेटियों ने ले रखी है और खूब निभा रहीं हैं।

घर के हर कमरे में ,हर कोने से बहन जुड़ी हुई नजर आ रही थी। हर चीज़ करीने से रखी हुई , दालान से लेकर किचन ,स्नानघर की सफ़ाई हर जगह पर अपनी बहन की उपस्थिति महसूस कर रही थी। और बेटियाँ ! सचमुच , साक्षात उसी का स्वरूप नज़र आ रहीं थीं।जैसे बच्चियाँ नहीं मेरी बहन ही हो।बात ,व्यवहार ,शिष्टाचार, स्नेह सब कुछ उसी की तरह छलका जा रहा था।

किसी ने सच ही कहा है ,खुशबू छोड़ जाते हैं अपने ,अपनों में ही। जरूरत है उसे महसूस करने की!

By: ज्योति अप्रतिम

Jan Manch
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